हकिक़त
ये शायरी नही दोस्तो
हकिक़त है
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अपने माझी को टटोलता हूँ कभी
तो गुजरे हुये सालो में
एक रुहानी कहानी दिखायी देती है
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समंदर के किनारे
जानो पें सर रख्खे
बैठी हुयी
एक भोली, कमसीनसी लडकी
दिखती है
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आज भी
उसके चेहरे को देखते ही
रुह को जो लम्स होता है
मानो ओस से भीगी मिट्टी
पैरोंको छू गयी हो
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उस रात अचानक एक बात
समझ आयी थी
रोशनी मोहताज होती नही
चाँद या सुरज की
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ये शायरी नही दोस्तो
हकिक़त है
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