ती ठिणगी होऊन येते
अन वणवा होऊन छळते
ती लकेर लवचिक होते
अन गाण्यातून रुणझुणते
ती कधी निखारा होते
विझुनी मग होते राख
उमलविते त्यातून फूल
मग तिचीच फुंकर एक
ती उल्केसम कोसळते
उखडून दिशांचे कोन
धगधगत्या चित्रखुणांची
ती लिहिते भाषा नविन
जे तरल नि अक्षर ते ते,
जे अथांग, अदम्य ते ते,
जे दूर असूनही भिडते,
जे जटिल तरी जाणवते,
ते तिचेच देणे असते….
…..किती घ्यावे? तरीही उरते !
प्रतिक्रिया
13 Nov 2017 - 4:12 pm | चांदणे संदीप
वाह!
Sandy
14 Nov 2017 - 1:41 pm | अनन्त्_यात्री
धन्यवाद!
14 Nov 2017 - 11:37 am | ज्ञानोबाचे पैजार
सुरेख, तुमची शब्दांवरची हुकूमत वादातीत आहे.
पैजारबुवा,
14 Nov 2017 - 3:44 pm | अनन्त्_यात्री
आपल्या प्रतिसादाबद्दल मनःपूर्वक आभार.
14 Nov 2017 - 3:09 pm | पद्मावति
खरंच सुरेख.
15 Nov 2017 - 9:14 am | अनन्त्_यात्री
धन्यवाद.
15 Nov 2017 - 6:24 pm | सूड
आवडलं
17 Nov 2017 - 1:49 am | यशोधरा
वा!
17 Nov 2017 - 10:17 am | अनन्त्_यात्री
धन्यवाद.
17 Nov 2017 - 10:33 am | जागु
छान.
21 Nov 2017 - 9:17 am | अनन्त्_यात्री
धन्यवाद.