बरेच दिवस खाली नमूद केलेली एक हिंदी कविता शोधतो आहे पण सापडत नाहीये.
नेट वर ४-५ ओळी सापडतात.. पण पूर्ण कविता काही सापडली नाही.
कुणास माहित असेल तर कृपया सांगावी.
कवितेचे बोलः "दुर्गावती जब रण में निकली हाथ मे थी तलवारें दो.."
माहिती हवी असल्यास कोणता सदाहरीत धागा वापरतात का ह्याची कल्पना नाही. तसे असल्यास कृपया हा प्रश्न त्यात विलीन करावा ही विनंती.
राघव
प्रतिक्रिया
1 Jul 2016 - 7:36 pm | नरेंद्र गोळे
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
हाथों में थीं तलवारें दो हाथों में थीं तलवारें दो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
धीर वीर वह नारी थी, गढ़मंडल की वह रानी थी।
दूर-दूर तक थी प्रसिद्ध, सबकी जानी-पहचानी थी।
उसकी ख्याती से घबराकर, मुगलों ने हमला बोल दिया।
विधवा रानी के जीवन में, बैठे ठाले विष घोल दिया।
मुगलों की थी यह चाल कि अब, कैसे रानी को मारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
सैनिक वेश धरे रानी, हाथी पर चढ़ बल खाती थी।
दुश्मन को गाजर मूली-सा, काटे आगे बढ़ जाती थी।
तलवार चमकती अंबर में, दुश्मन का सिर नीचे गिरता।
स्वामी भक्त हाथी उनका, धरती पर था उड़ता-फिरता।
लप-लप तलवार चलाती थी, पल-पल भरती हुंकारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
जहां-जहां जाती रानी, बिजली-सी चमक दिखाती थी।
मुगलों की सेना मरती थी, पीछे को हटती जाती थी।
दोनों हाथों वह रणचंडी, कसकर तलवार चलाती थी।
दुश्मन की सेना पर पिलकर, घनघोर कहर बरपाती थी।
झन-झन ढन-ढन बज उठती थीं, तलवारों की झंकारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
पर रानी कैसे बढ़ पाती, उसकी सेना तो थोड़ी थी।
मुगलों की सेना थी अपार, रानी ने आस न छोड़ी थी।
पर हाय राज्य का भाग्य बुरा, बेईमानी की घर वालों ने
उनको शहीद करवा डाला, उनके ही मंसबदारों ने।
कितनी पवित्र उनके तन से, थीं गिरीं बूंद की धारें दो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
रानी तू दुनिया छोड़ गई, पर तेरा नाम अमर अब तक।
और रहेगा नाम सदा, सूरज चंदा नभ में जब तक।
हे देवी तेरी वीर गति, पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं।
तेरी अमर कथा सुनकर दृग में आंसू आ जाते हैं।
है भारत माता से बिनती, कष्टों से सदा उबारें वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
नारी की शक्ति है अपार, वह तो संसार रचाती है।
मां पत्नी और बहन बनती, वह जग जननी कहलाती है।
बेटी बनकर घर आंगन में, हंसती खुशियां बिखराती है।
पालन-पोषण सेवा-भक्ति, सबका दायित्व निभाती है।
आ जाए अगर मौका कोई तो, दुश्मन को ललकारे वो।
जब दुर्गावती रण में निकलीं हाथों में थीं तलवारें दो।
1 Jul 2016 - 8:05 pm | यशोधरा
वा!
1 Jul 2016 - 8:45 pm | राघव
पण बहुदा पाठभेद आहेत.. काही ओळी मला दुसरीकडे मिळाल्यात त्या अशा -
दुर्गावती जब रण में निकली हाथ में थी तलवारें दो !
धरती कांपी आकाश हिला जब हिलने लगी तलवारें दो !
गंगा की धारा लगी तपने, सरयू का पानी उबल पड़ा !
उन गोरे गोरे हाथो में जब चमक उठी तलवारें दो !...
अर्थात् पूर्ण नाही मिळाली तिकडे.
पुनःश्च धन्यवाद!
राघव
1 Jul 2016 - 7:59 pm | पद्मावति
फारच सुंदर कविता! धन्यवाद!
गढ़मंडल म्हणजे गोंडवाना/ गोंडांची राणी दुर्गावतीच नं? ह्या राणीविषयी अजुन जाणून घ्यायला आवडेल.
कवितेच्या एकूण लहेज्यावरून सुभद्रकुमारी यांचीच कविता वाटतेय.
1 Jul 2016 - 8:59 pm | गौतमीपुत्र सातकर्णी
गढमंडल म्हणजे गोंडवनच.
1 Jul 2016 - 9:14 pm | पद्मावति
धन्यवाद.
21 Jul 2016 - 9:52 pm | राघव
आई कडे माझ्या मामाची एक वही सापडली.. त्यात ही कविता लिहिलेली होती!
लगेच लिहून काढली... :-)
दुर्गावती जब रणमें निकली, हाथोंमें थी तलवारें दो
धरती कॊंपी आकाश हिला, जब हिलनें लगी तलवारें दो!
गंगा की धार लगी तपने, सरयू का पानी उबल पडा..
सूरज की आंखें चुंधियायीं जब चमक उंठीं तलवारें दो!
वायू भी डर से सहम उठा, आकाश का रंग भी जर्द हुआ..
उन गोरे-गोरे हाथों में जब तडप उंठीं तलवारें दो!
गुस्से से चेहरा ताबां था, आंखों में अंगार बरसते थे..
घोडे की बाध थी दातों में और हाथोंमें थी तलवारें दो!
फिर गयी जैसे एक शेरनी है.. शत्रूदल में भगदड सी मचीं..
जब चोंट पडी नक्कारोंपर, तब निकल पडी तलवारें दो!
लाशोंसे पृथ्वी पटनें लगी.. रक्त की सरिता बहने लगी..
उस तरफ हाहाकार मचा जिस तरफ चली तलवारें दो!
सिर कटनें लगे गाजर की तरह.. रिपुओंके छक्के छूंट गये..
पॊंव सिर पर रख सब भाग उठे, जब रुक न सकी तलवारें दो!
दुर्गा भारत की शान ठी तू, हिंदुओं के पथ की मान ठी तू..
दुनियां को याद अभी तक है.. तेरी खूंनी तलवारें दो!
कवी कोण ते मामाला विचारून बघतो. नाव मिळाले तर टंकतो पुन्हा..
टीपः नुक्ते-अनुस्वार काही ठिकाणी चुकले असण्याची शक्यता आहे. चु.भु.द्या.घ्या.
राघव
21 Jul 2016 - 9:59 pm | राघव
शेवटच्या कड्व्यात टायपो झालेला आहे.
संपादक महोदय, कृपया दुरुस्त करावे.
दुर्गा भारत की शान थी तू, हिंदुओं के पथ की मान थी तू..
दुनियां को याद अभी तक है.. तेरी खूंनी तलवारें दो!
22 Jul 2016 - 3:51 am | मराठमोळा
राघव काका,
कवितेला चाल लावून हवी आहे का? =))
22 Jul 2016 - 3:04 am | बहुगुणी
अवांतराबद्दल क्षमस्व, पण ही कविता वाचून सुभद्राकुमारी चौहान यांचीच झाशीच्या राणीवरची प्रदीर्घ कविता आठवली. (आमचा मुलगा शाळेत असतांना त्वेषाने म्हणायचा त्याची आठवण झाली.)
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
22 Jul 2016 - 4:13 am | स्रुजा
वाह वाह ! हीच कविता आठवली वरच्या वाचताना. वरच्या दोन्ही कविता मला माहिती नव्हत्या. राघव यांच्यामुळे त्या दोन्ही कळाल्या आणि ही तर नेहमीचीच आवडीची !
22 Jul 2016 - 9:30 am | भाग्यश्री कुलकर्णी
सेम मलाही ही च कविता आठवली. दुर्गावतीची पहिल्यांदाच वाचली. सगळ्या मस्तच आहेत.
22 Jul 2016 - 10:44 am | प्रयोगिका
गोंडवाना म्हन्जे आजच जबलपुर आनि परिसर, मी जबलपुर मधे च राहते. इथ गावाबहेर रानी दुर्गावती ची समाधि आहे.
22 Jul 2016 - 1:18 pm | बरखा
कविता फारच सुंदर आहेत. वाचुन छान वाटल.
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।"
कवितेत केलल राणीच वर्णन अप्रतिम आहे...
22 Jul 2016 - 2:22 pm | राघव
वाह! बहुगुणी, खूप सुंदर रचना आहे ती आणि सुप्रसिद्धच आहे :-)
या सर्व रचना अतिशय ज्वलंत आहेत. मनाला भिडतात सरळ..
मामाच्या वहीत आणखीही काही आहेत.. बघतो आणखी कोणत्या टंकता आल्यात तर..! ;-)
24 Jun 2017 - 2:48 pm | शलभ
कवयित्री सुभद्राकुमारी यांचा अल्प परिचय..
http://www.loksatta.com/anwat-aksharvata-news/marathi-articles-on-subhad...