या अवघ्या चराचरी
व्यापलास तू हरी
तरी आत बाहेरी
शोध फसवा असा ll १ ll
चालतसे देणी घेणी
जीवा नित्य जन्मांतरी
चिंता लागतसे मनी
होईन पार कसा ll २ ll
तूच बाप जननी
येई पहा धावुनी
या संसार काननी
बाळ हाका मारीतसा ll ३ ll
काळाचिये भक्ष आम्ही
तिथे नाही विनवणी
अभय मिळो शेवटी
पायी तुझ्या लागतसा ll ४ ll
- सार्थबोध
प्रतिक्रिया
7 Oct 2013 - 5:43 pm | मिसळलेला काव्यप्रेमी
अतिशय सुरेख आणि रेखिव रचना..
7 Oct 2013 - 8:07 pm | प्यारे१
सुंदर रचना!
8 Oct 2013 - 10:23 am | मूकवाचक
+१
7 Oct 2013 - 10:49 pm | यशोधरा
सुरेख.
8 Oct 2013 - 8:57 am | सुधीर
रचना आवडली.
8 Oct 2013 - 9:11 am | गुरुचरण
अतिशय सुरेख रचना
8 Oct 2013 - 9:52 am | चाणक्य
ओघवती आहे. खूप आवडली.
8 Oct 2013 - 10:31 am | मदनबाण
सुरेख !
9 Oct 2013 - 8:29 pm | पैसा
रचना आवडली!