ज्योति अळवणी in जे न देखे रवी... 10 Sep 2015 - 12:16 am समर्थ असूनही अबला तू सबल मनाची कोमला तू नभोवनीचा शीतल चंद्र अन्... तप्त सूर्याची आभा तू मनमोकळा निर्झर तू ग हृदयस्थ गंभीर डोह ही तू स्वर गंगेचे आरोह कधी तू कधी दबलेली आर्तता तू सर्वात असूनही.. एकटीच तू ग तुझ्या मनीचा आधार तू भावकविताकविता प्रतिक्रिया सुंदर! छान लिहिलय. 10 Sep 2015 - 3:06 am | पद्मावति सुंदर! छान लिहिलय. छान कविता. 10 Sep 2015 - 9:53 am | अजया छान कविता. स्वतःशी 10 Sep 2015 - 10:23 am | नाखु साधलेला सुंदर संवाद !! मस्त रचना. सुरेख रचना. 10 Sep 2015 - 11:15 am | सस्नेह सुरेख रचना. आवडली 10 Sep 2015 - 1:33 pm | भुमी कविता आवडली . भाव बरे आणि रचना विस्कळीत असं 10 Sep 2015 - 2:02 pm | वेल्लाभट भाव बरे आणि रचना विस्कळीत असं झैलंय धन्यवाद 11 Sep 2015 - 11:57 pm | ज्योति अळवणी आपल्या सर्वांचे मनापासून धन्यवाद
प्रतिक्रिया
10 Sep 2015 - 3:06 am | पद्मावति
सुंदर!
छान लिहिलय.
10 Sep 2015 - 9:53 am | अजया
छान कविता.
10 Sep 2015 - 10:23 am | नाखु
साधलेला सुंदर संवाद !!
मस्त रचना.
10 Sep 2015 - 11:15 am | सस्नेह
सुरेख रचना.
10 Sep 2015 - 1:33 pm | भुमी
कविता आवडली .
10 Sep 2015 - 2:02 pm | वेल्लाभट
भाव बरे आणि रचना विस्कळीत असं झैलंय
11 Sep 2015 - 11:57 pm | ज्योति अळवणी
आपल्या सर्वांचे मनापासून धन्यवाद