ग़ज़ल
मेरे हर दर्द को मेहसूस किया है मैंने, ना पूछ कीसीको क़्या पाया हे मैंने
मेरे इतनि सी हँसी को झूठा नक़ाब पहनाया हे मैंने, ना समज कहीं गवाया है मैंने
मेरे चंद अश्कों का सौदा करलिया है मैंने, तन्हाई में जीना सीख लिया है मैंने
मेरे टूटें भरोसें के कातिल को जाना है मैंने, उफ़ तक करना भुला दिया है मैंने
मेरे हिस्सें की छाँव छोड़ दी है मैंने, धुप के थपेड़ों कों पीना शुरू किया है मैंने
मेरे ख़यालों की नैया जबसे ठानी है मैंने, कलम के सहारें चलते रेहना है मैंने
मेरे हौंसलें कों बुलंद किया है मैंने, गिर के भी फिर से ख़ुद को संभाला है मैंने
कवी - स्वप्ना
प्रतिक्रिया
17 Oct 2017 - 9:08 pm | ज्योति अळवणी
मिपावर केवळ मराठी लेखन होते. आश्चर्य आहे की अजून तुमची गझल उडवली कशी गेली नाही.
बाकी लिहिली छान आहे