जातो सूर्य झाकोळून
ही किमया वेळाची,
पाश येते आवळून
काळभूल अंधाराची...
दाराआड दडती स्वप्नं
मन भरारी आभाळी,
पंख छाटता दयावंत
शाप मिरवू कपाळी...
येता डोळ्यांत कणव
कुणा जन्मीचे ऋण,
किती फेडू म्हणता
भर पडते नवीन...
बेड्या घालून चालती
इथे सारेच बंदी,
मुक्त होऊन रांगती
त्याला म्हणती छंदी...
अशी सरता सरेना
वाट दाट वणव्याची,
भिजलेल्या हुंदक्यांना
खोड भारी चालण्याची...
प्रतिक्रिया
10 Mar 2016 - 6:42 am | यशोधरा
वा!
10 Mar 2016 - 10:07 am | चांदणे संदीप
जबरदस्त! आवडली कविता!
Sandy
10 Mar 2016 - 10:32 am | प्राची अश्विनी
रारा, क्या बात!
10 Mar 2016 - 11:20 am | नीलमोहर
अप्रतिम !!
10 Mar 2016 - 11:23 am | अभ्या..
अहाहाहाहा
सुपर्ब.
10 Mar 2016 - 11:35 am | रातराणी
धन्यवाद!
10 Mar 2016 - 12:57 pm | एस
फारच छान!
10 Mar 2016 - 3:32 pm | सस्नेह
सुंदर अभिव्यक्ती !
10 Mar 2016 - 7:19 pm | एक एकटा एकटाच
वा वा वा
10 Mar 2016 - 9:51 pm | नूतन सावंत
क्या बात है.सुरेख.
10 Mar 2016 - 10:29 pm | श्रीरंग_जोशी
इस कवितामें जान हैं!!
11 Mar 2016 - 9:12 am | ज्ञानोबाचे पैजार
चांगली कविता.
आवडली.
पैजारबुवा,
11 Mar 2016 - 12:22 pm | पद्मावति
सुरेख!