सर्वं मिपाकरांना सलाम.
सहा महिन्यांपुर्वी एक प्रयत्न केला होता . (http://www.misalpav.com/node/11661)
पन सभासदांची सम्पादनाची सोय काढ्ण्यात आली आणि आमची गोची झाली .
आता नविन सुरुवात करत आहे फरक फक्त इतकाच कि रोज प्रतिसाद मधे गजल टाकत जाइल.
आजची ग़जल तशी जुनिच पन अप्रतिम आहे म्हणुन देन्याचा मोह आवरत नाही.
आपल्या सुचना आणि प्रतिक्रिया आमच्यासाठी अमुल्य आहेत, प्रतिक्षेत .........
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं ! ( मुहाजिर = निर्वासीत )
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं !!
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है !
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं!!
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में !
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं !!
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी ! ( अक़ीदत = विश्वास )
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं !!
किसी की आरज़ू ने पाँवों में ज़ंजीर डाली थी ! ( आरज़ू = इच्छा )
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं!! ( ऊन की तीली = लोकर विनायची काडी / फंदा= टोक, छेडा )
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से! ( सलीक़े से= पद्ध्तशीर )
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं!! (डलिया = टोपली )
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है! ( उन्नाव, मोहान = यु.पी. मधील गाव )
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं!! ( हसरत = इच्छा )
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद!
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं!!
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है !
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं!!
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है! (हिजरत= स्थलांतर )
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं!!
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे!
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं!!
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं!
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं!!
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब! (मज़हब = धर्म)
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं!!
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की !
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं!! (सेहरा = लग्नात गायचे स्तुतीपर गीत)
मुनव्वर राणा .
प्रतिक्रिया
13 Dec 2010 - 10:36 pm | गणेशा
मुहाजिरांचे दु:खद मन गझलकाराणे अतिषय उत्कृष्ठ पणे येथे मांडले आहे.
त्याच्या मनाची व्यथा .. संवेदना शब्दा शब्दात जाणवते आहे..
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अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी !
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं !!
किसी की आरज़ू ने पाँवों में ज़ंजीर डाली थी !
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं!!
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हे तर वाचुन मन सुन्न झाले , फाळणीच्या वेळेस निर्वासित होउन चेहरा हरवलेल्या माणसांच्या वेदना आठवुनच मन हेलावुन गेले.
मिट्टी के लिये सोना छोड आये हे तर मनाला चटका लावुन गेले.
माहाजिर पाकिस्थानी असो वा भारतीय त्याचे दु:ख सेमच ...
अश्फाक भाउ .. येवुद्या आनखिन गझल्स ..
अवांतर :
१. आपल्या या गझल मुळे .. माझे मित्र श्री. विजय कणसे यांची निर्वासितांवरील एक कविता आठवली .. आता माझ्याजवळ नाही .. पण जेंव्हा देयीन तेंव्हा नक्की सांगेन ..
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14 Dec 2010 - 9:37 am | आंसमा शख्स
फार आवडले.
अजून गझला प्रतिसादात नको.
कृपया प्रत्येक गझल वेगळी द्याल का?
14 Dec 2010 - 1:42 pm | गणेशा
अजून गझल्स प्रतिसादात नको.
कृपया प्रत्येक गझल वेगळी द्याल का?
माझे ही हेच म्हणने आहे.
हवे तर प्रत्येक गझल्स च्या आधी .. मागच्या गझल्स ची लिंक देत रहायची ..
आपोआप सर्व गझल्स लिंक नुसार ओपन करता येतील ...
14 Dec 2010 - 9:44 am | पाषाणभेद
क्या बात है | एकएक कडवे मस्त आहे.
14 Dec 2010 - 1:46 pm | टारझन
शेर्-ओ-शायरीत एवढी गती नाही ... पण तरीही षिर्षक वाचुन एक जुणा फेमस शेर आठवला .. पुर्ण देता येणार नाही ... उरलेला आपापला आठवुन घेने.
रोज कहती हो आदाब आदाब ...
गौर फर्माईयेगा ..
रोज कहती है आदाब आदाब ..
...................... बुरा मान गये ?
- इर्शादराव शेरकर
14 Dec 2010 - 9:12 pm | अश्फाक
१४-१२-१०
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सम्भलते क्यूँ हैं !
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूँ हैं !!
मैं न जुगनू हूँ दिया हूँ न कोई तारा हूँ !
रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं !!
नीन्द से मेरा ताअल्लुक़ ही नहीं बरसों से ! ( ताअल्लुक़ = संबंध )
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूँ हैं !!
मोड़ होता है जवानी का सम्भलने के लिये !
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यूँ हैं !!
राहत इंदोरी .
15 Dec 2010 - 6:53 pm | अश्फाक
१५-१२-१०
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए ! ( सुनहरा जाम= सोनेरि प्याला )
चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए!!
मैं ख़ुद भी एहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ ( एहतियातन = काळजीपुर्वक )
कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए !!
समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको!
हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए !!
मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा!
परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए !!
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो!
न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए!!
बशिर बद्र.
15 Dec 2010 - 9:27 pm | उल्हास
अहो एकेकाचा निवांतपणे आस्वाद घेवु द्या
अप्रतिम