आई
मी सावलीत होतो कल्पतरूच्या
तोवरी जाण नव्हती...
तो कल्पतरू जळत होता,
ज्याची मला तहान होती....
वात्सल्याच्या चार भावना,
कुठल्या कुठे विरून गेल्या....
माणुसकी जिथे मातीत मिसळली ,
ती मातीसुद्धा अजाण होती....
अगतिक मी प्रेमाच्या शोधात
चार दिशात हिंडलो.
राहूनी या धरेवरती
त्या परमेश्वराची आस होती.....
शेवटी फिरूनी थकलो,
आलो कल्पतरूच्या छायेत..
खरच परमेश्वरच स्थिरवला होता,
त्या कल्पतरूच्या मायेत....
मिळाली तिची छाया
साताजन्माची उतराई होती,
तिच्या कुशीत शांतपणे घेणारी
ती कल्पतरू माझी आई होती.......
-निशांत (पंचम)
प्रतिक्रिया
9 May 2010 - 2:36 pm | पक्या
कविता चांगली आहे.
जय महाराष्ट्र , जय मराठी !
10 May 2010 - 11:36 am | भारद्वाज
छान ...अजून येवू देत....
"मूल रडल्यावर जिला आयुष्यात एकदाच आनंद होतो ती म्हणजे आई"- ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
मातृदेवो भव
9 May 2010 - 8:19 pm | प्राजु
सुरेख!!
:)
- (सर्वव्यापी)प्राजक्ता
http://www.praaju.net/
9 May 2010 - 9:50 pm | वाहीदा
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक मां है जो कभी ख़फ़ा नहीं होती ।।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है ,
मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है |
मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं,
मां से इस तरह लिपटूं कि बच्चा हो जाऊं ।।
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है ,
मां दुआ करती है, ख्वाब में आ जाती है ।।
जब से गई है माँ मेरी रोया नहीं,
बोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नहीं ।
साया उठा है माँ का मेरे सर से जब,
सपनों की दुनिया में कभी खोया नहीं ।
सुख देती हुई मांओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।
किसी को घर मिला तो किसी के हिस्से में दुकान आयी,
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी |
-- मुनव्वर राणा
~ वाहीदा
10 May 2010 - 7:27 am | sur_nair
क्या कहने. बहोत बढ़िया वहीदाजी.
पंचमजी, प्रयत्न छान आहे.
10 May 2010 - 1:41 pm | विमुक्त
सुंदर कविता...