पोथी न पंचांग हाती मिरवत
पांडू फिरतो डोलत डोलत
दे आव्हाने येता-जाता -
"काय कुणाची आहे हिंमत?"
शुक्रावरुनी चंद्रावरती
चंद्रावरुनी राहूवरती
कधी कधी पण पुरता फसतो
पराक्रमी तो पांडू असतो!
प्रति-आव्हाने जर का येती
पांडोबाचे पद लटपटती
होराशास्त्री पांडू अमुचे
रिंगण सोडून पळून जाती!!
प्रतिक्रिया
11 Aug 2011 - 2:59 pm | सूड
आवडल्या गेले आहे, हे वे सां न ल !!
11 Aug 2011 - 5:09 pm | वपाडाव
:)
11 Aug 2011 - 3:11 pm | पप्पु अंकल
कसल हाणलयस बापरे.....
पॅपिलॉन तुमच्या प्रतिभेला सलाम
कविता खुप खुप आवड्ली...........
11 Aug 2011 - 4:49 pm | पॅपिलॉन
धन्यवाद सुधांशु देवरुखकर आणि पप्पु अंकल.
11 Aug 2011 - 4:50 pm | प्रास
ये लगा पॅपिके विडंबनका सिक्सर......!
छानच....!
:-)
11 Aug 2011 - 4:57 pm | गणपा
समयोचित विडंबन. :)
11 Aug 2011 - 10:52 pm | जानम
सिक्सर......!
12 Aug 2011 - 12:49 am | अत्रुप्त आत्मा
तोफच मारली की वो तुमी... हा हा हा हा :bigsmile:
पांड्याच्या उडाल्या दांड्या....:wink:
12 Aug 2011 - 4:25 pm | अन्या दातार
भारी!