(गुलाम अली यांनी गायलेल्या 'जिंदगी को उदास कर भी गया' या गझलचा स्वैर भावानुवाद)
आला ॠतू अनामिक, अवचित निघून गेला
जगणे उदासवाणे, माझे करून गेला
नशिबी वियोग आला, सार्या सवंगड्यांचा
अश्रू उरात झरले, जडशीळ देह झाला
हुलकावूनीच गेले, दुष्प्राप्य ध्येय होते
चुकता दिशा जराशी, साथी विभक्त झाला
मृत्यू समोर अंती, सपशेल हार झाली
निर्जीव चेहरा ही, पुरता विदीर्ण झाला
प्रतिक्रिया
2 Nov 2012 - 6:41 pm | जेनी...
खुप भावनिक भावानुवाद !
आवडलं :)
2 Nov 2012 - 7:04 pm | शुचि
मस्त.
2 Nov 2012 - 7:25 pm | बहुगुणी
भावानुवादातही ओळी-ओळीत दु:ख ओथंबतंय हे यशच म्हणायला हवं...I wasn't ready to be melancholy right now, but you succeeded in making me so (हेही यशच!)
2 Nov 2012 - 7:28 pm | पैसा
भावानुवाद जमलाय मस्तच!स्वतंत्र रचना म्हणावी इतका चांगला!
2 Nov 2012 - 7:34 pm | सावकार स्वप्निल
अतिसुंदर !
2 Nov 2012 - 7:52 pm | सूड
सुंदर!!
2 Nov 2012 - 8:49 pm | मदनबाण
सुरेख ! :)
2 Nov 2012 - 9:46 pm | अन्या दातार
हा मुक्या कधीतरीच लिहितो, पण जोरदार लिहितो राव!
2 Nov 2012 - 10:04 pm | अत्रुप्त आत्मा
उत्तम...उत्तम...आणी उत्तम... :-)
2 Nov 2012 - 10:14 pm | निवेदिता-ताई
सुंदर
3 Nov 2012 - 12:31 am | चिगो
>>नशिबी वियोग आला, सार्या सवंगड्यांचा
अश्रू उरात झरले, जडशीळ देह झाला
सुंदर भावानुवाद..
3 Nov 2012 - 2:38 pm | स्पंदना
निर्जीव चेहरा ही, पुरता विदीर्ण झाला
काय कल्पना आहे!
मस्त झालाय तुमचा भावानुवाद. खरतर एखाद्या गोष्टीमुळे फक्त सुरवात होते एखाद्या लिखाणाची, पण मग त्याला (लिखाणाला)स्वतःच अस एक वेगळेपण, एक वलय निर्माण होत, त्यामुळे मुळ प्रेरणेवर किती विसंबायच ते आपणच ठरवु शकतो.
3 Nov 2012 - 9:24 pm | निरन्जन वहालेकर
क्या बात है ! ! ! 'जिंदगी को उदास कर भी गया' खुप-खूप वेळा ऐकली. पण अनूवाद त्याहिपेक्षा सुन्दर. मजा आली.
5 Nov 2012 - 11:55 am | अक्षया
+१
5 Nov 2012 - 11:56 am | प्रचेतस
मूळ गझलेइतकाच सुरेख भावानुवाद.
5 Nov 2012 - 4:33 pm | कवितानागेश
मूळ गझलेतला भाव तंतोतंत उतरलाय.
नेहमीप्रमाणेच ब्येष्ट. :)
8 Nov 2012 - 11:31 am | राघव
ही तर उत्कृष्ट अशी स्वतंत्र कविता आहे.
खूप उत्कट. धन्यवाद!
राघव
8 Nov 2012 - 11:38 am | स्पा
हे विशेष आवडले
मूळ गझल तर ग्रेट आहेच
पण भावानुवाद पण भावला
11 Oct 2013 - 2:21 pm | सार्थबोध
...खूप आवडला भावानुवाद