(गुरूपौर्णिमेच्या दिवशी प. पू. बाबामहाराज आर्वीकर यान्चे 'संतधर्म जीवनदर्शन' हे पुस्तक वाचत असताना सुचलेली
ओवीबद्ध रचना)
||"श्री गणेशाय नमः"||
व्यासपौर्णिमेचा। दिस हा महान।
सद्गुरूस वंदन। करितो मी॥
संतधर्म हाच। जीवनाचा मंत्र।
आता त्याचे तंत्र। वर्णितो मी॥
धर्महीन आज। झाले बुद्धिवंत।
नाही कुणा खंत। अध:पतनाची॥
बोलघेवड्यांचा। क्षीण पुरूषार्थ।
भ्रष्ट परमार्थ। बोकाळला॥
दंभी भोगासक्त। ज्ञानियाचे सोंग।
साक्षात्कारी ढोंग। वठविती॥
तणावमुक्तीला। मानुनिया सिद्धी।
ठकवावी बुद्धी। पाखंड्याने॥
ज्ञान 'शून्यतेचे'। भक्तीहीन भ्रम।
वृथा सारे श्रम। प्रायोगिक।।
सद्गुरूंची कृपा। ईश्वराची भक्ती।
साधकाची शक्ती। आंतरिक॥
सद्गुरूकृपेने। आकळले मज।
अंतरीचे गुज। नाथांचिया॥
पिंडी ते ब्रह्मांडी। असे ज्याचे मर्म।
निसर्गाचा तो धर्म। साहजिक॥
मनःकल्पनांचा। नसे हा पिसारा।
आहे प्रान्त सारा। वास्तवाचा॥
चित्तचतुष्ट्याच्या। रूपे साकारले।
पिंड आकारले। व्यक्तीरूप॥
ब्रह्मांडी कोंडला। विश्वाचा पसारा।
'चिद्विलास' हा सारा। चैतन्याचा॥
मन, चित्त, बुद्धी। आणि अहंकार।
शक्तीमय सार। व्यक्तीत्वाचे॥
चतुर्विध क्षेत्र। असे 'भाव'मय।
सहज प्रत्यय। येई त्याचा॥
ब्रह्मांडरूपाने। विस्तारले तेच।
स्वभावेच साच। पहा कैसे॥
मन भावनेचे। बुद्धी हे विद्येचे।
चित्त विहाराचे। स्थूल क्षेत्र॥
कर्तृत्वरूपाने। येई प्रत्ययास।
नित्य अनायास। अहंकार॥
ब्रह्मांडी ही तैसी। क्षेत्रे चतुर्विध।
समष्टीत विविध। पहा कैसी॥
चंचल ते मन। होतसे तल्लीन।
ईशपदी लीन। तीर्थक्षेत्री॥
बुद्धीस लाभते। व्यवहारी ज्ञान।
तैसेची प्रज्ञान। विद्यापीठी॥
सहज उत्स्फूर्त। चित्ताचा विहार।
मिळता आधार। कुटुंबाचा॥
संघभावनेने। अहंकार शुद्धी।
सकल कार्यसिद्धी। ग्रामांतरी॥
गृह विद्यापीठे। ग्राम तीर्थक्षेत्रे।
चतुर्विध क्षेत्रे। सामाजिक॥
पिंड ब्रह्मांडाचे। असे सामरस्य।
नसे ते रहस्य। सहजसिद्ध।।
परिशुद्ध करा। चतुर्विध क्षेत्र।
हाच गुरूमंत्र। नाथपंथी।।
अष्टाक्षरी हा मंत्र। करावया सिद्ध।
व्हावे कटिबद्ध। साधकाने॥
खारीचाच वाटा। उचलावा नीट।
रचा एक वीट। नाथ मंदिराची॥
विचारशून्यतेची। हिडीस वासना।
बाष्कळ कल्पना। गांजेकस॥
भक्तीभावनेने। जीवना सन्मुख।
होता शांती सुख। द्वारी उभे॥
नाथसिद्धांताचे। जाणुनिया वर्म।
निष्कामत्वे कर्म। आचरावे।
कर्तव्यपूर्तीने। चारी पुरूषार्थ।
आणि परमार्थ। साधा सारे॥
॥श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥
प्रतिक्रिया
22 Jul 2011 - 2:50 pm | राघव
छान लिहिलं आहेस रे. अर्थात् काही ओव्यांबद्दल [कल्पनांबद्दल] चर्चा कराविशी वाटतेय.
फक्त ह्या ओळी नसल्यात तरी चालतील असं वाटतं-
संतधर्म हाच। जीवनाचा मंत्र।
आता त्याचे तंत्र। वर्णितो मी॥
बाकी छानच! येऊ देत अजून.
राघव
23 Jul 2011 - 1:55 am | धन्या
का ते सांगू शकाल का?
23 Jul 2011 - 1:42 am | धन्या
आजच्या प्रपंच, परमार्थ आणि अध्यात्माच्या क्षेत्रातील वस्तूस्थितीवर खुप सुरेख भाष्य केले आहे.
काव्य उस्फुर्त आहे यात वादच नाही !!!
- धनाजीराव वाकडे
23 Jul 2011 - 9:51 pm | झंम्प्या
जय जय गुरुदेव द्त्त...
छान जमलय...
23 Jul 2011 - 9:51 pm | झंम्प्या
जय जय गुरुदेव द्त्त...
छान जमलय...
26 Jul 2011 - 9:19 pm | इरसाल
जय सद्गुरु
27 Jul 2011 - 4:56 pm | अमोल केळकर
सुरेख
अमोल केळकर
27 Jul 2011 - 5:06 pm | स्पा
मुक्या मस्त जमलंय रे