हे निळारंभ मुक्तसे
काही मला खुणावे
बोलेल जरी मजपाशी
मन करीन मोकळे ll १ ll
माझ्या उरात दाटे
व्यथा बरे कशाची
करतील दूर काय
तिज मेघ सावळे ll २ ll
बोलू कसा तयाला?
जीव आर्त गुदमरे
संकेत विहंग सांगे
घे भरारी अवखळे ll ३ ll
मी बोलता जरासा
तोही भरून आला
तळमळ झुगारुनी
तो विजेत विरघळे ll ४ ll
हा पाऊस आसवांचा
वाहून हर्ष त्याला
मी ही भिजून चिंब
दु:ख सारे निमाले ll ५ ll
- सार्थबोध
प्रतिक्रिया
24 Sep 2013 - 12:14 pm | पैसा
आवडली!
30 Sep 2013 - 11:50 am | मदनबाण
छान...
1 Oct 2013 - 4:49 am | स्पंदना
हं! मस्तच!
2 Oct 2013 - 10:37 am | सुधीर
कविता आवडली.
3 Oct 2013 - 2:44 pm | psajid
मी बोलता जरासा
तोही भरून आला,
तळमळ झुगारुनी
तो विजेत विरघळे
हे खुप छान साधलंय !
7 Oct 2013 - 11:21 am | गुरुचरण
वाह सुरेख
-गुरुचरण
7 Oct 2013 - 11:32 am | आतिवास
आवडली.
7 Oct 2013 - 12:57 pm | यशोधरा
आवडली.