ही गझल माझी नाही.. पण आज कोण जाणे खूप आठवते आहे...
आशुतोषदादा जगणे तुझ्या कडुन शिकावे.. त्या दिवसातली ती प्यास आज जीव कासावीस करून जाते आहे.
सगळी गझल आता आठवत नाहि.. तरिही..
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हे खुदा मुझको बता, येह जिंदगी क्या राज ही ?
आजतक वोह हमसे, हम उनसे नाराज है
कर तलब यु जाम-ए-उल्फत कौन पिता है यहा ?
अश्क पी पी कर बहकना येह मेरा अंदाज है..
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अशीच अजुन एक... कवी आज आठवत नाही.. पण गझल कातिल आहे..
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जी मला आता चढेना, ती पुन्हा प्यावी कशाला ?
तीच ती नावे नकोशी मी पुन्हा घ्यावी कशाला ?
चेहेरा मी, कुंचला मी, रंग ही माझेच सारे..
मी कुणाला चेहेर्याची भीक मागावी कशाला.. ?
कोण तु होतीस माझी, हे तुला माहीत होते,
अन तुझा मी कोण होतो, याद ही द्यावी कशाला.. ?
जी मला आता चढेना, ती पुन्हा प्यावी कशाला ?
तीच ती नावे नकोशी मी पुन्हा घ्यावी कशाला ?
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प्रतिक्रिया
19 Apr 2011 - 12:06 pm | मिसळलेला काव्यप्रेमी
दोन्ही गजला तर छानच आहेत. शायरचे नाव कळले तर हवेच आहे.
19 Apr 2011 - 2:52 pm | निनाव
छानच.
<<चेहेरा मी, चुन्चला मी, रंग ही माझेच सारे..>>
सुझावः ' कुंचला ' असे म्हणायचे होते का?
19 Apr 2011 - 5:35 pm | बन्या बापु
टंकलेखनामध्ये चुक झाली...