जाग
उसळती काळोखाच्या बहु लाटा अंबरात
किनार शुभ्र रुपेरी खुलते कृष्णमेघात ॥
तम गर्द दाटलेले काजळी दशदिशात ॥
शुक्र चांदणी एकली लखलखे निमिषात ॥
रजनी विसावलेली धरेवरी शांत शांत
चाहूल असे तिजला हलके येई प्रभात ॥
मधुगंधी गार वारा वाहतो शीळ घालीत
डोलतात वृक्षवेली अंगांग भिजे दवात ॥
गवताच्या सान पाती लवलवती तालात
फुले फुले उमलुनी बहरला आसमंत ॥
उडती गाती ते पक्षी विहरती आनंदात
जागी होत वसुंधरा नाहतसे सोन्यात ॥
-- मनीषा
प्रतिक्रिया
1 Nov 2013 - 9:21 pm | पैसा
अगदी चित्रदर्शी कविता!
2 Nov 2013 - 9:54 am | प्रभाकर पेठकर
सुंदर काव्यात्म पहाटवर्णन. पहाटेची प्रसन्नता अंगांग रोमांचित करणारी आहे.
3 Nov 2013 - 9:21 am | वेल्लाभट
पहाटेचं सुरेख वर्णन ! वा
3 Nov 2013 - 12:27 pm | यशोधरा
चित्रदर्शी कविता अतिशय आवडली!
6 Nov 2013 - 6:34 am | इन्दुसुता
छान आहे कविता
6 Nov 2013 - 6:19 pm | अनन्न्या
प्रसन्न पहाट समोर उभी राहिली.
11 Nov 2013 - 4:49 am | स्पंदना
मस्त..!!